Wednesday, May 4, 2016

कौन सा ख्वाब?

थोड़ी अजीब सी रात है आज,
एक अंजान सी मायूसी है,
अब किसके ख्वाब देखें?
ऐसे किस साये में,
जो ना उससे टकराए कभी?
उसको तो हमने अपने काले दिल को नंगा कर के दे दिया था,
उसने देखा तो पहले कहा की उफ्फ, ये कितना काला है!
फिर यही कहकर की कितना काला है, कूच दिया कचरे में। 
उफ्फ, हम करते रह गए!
अब कौन सी चादर डालें और कौन सी ताबीज पहनें?
किस कशिश के मातम में नाचें?
आखिर ऐसा कौन सा ख्वाब देखें?
की सवेरे मायूसी भले ही बची रहे,
आखिर रखैल है हमारी-तुम्हारी,
पर अंजान सी ना हो। 
जहाँ ना इंतजार हो,
और ना ही हो उसकी फरेबी फितरत और झूठे वादे। 
जहाँ हो तो बस ऊपर बैठे खानसामे की बेशर्मी,
और अपनी लजीज आशिकी
ऐसा कौन सा ख्वाब देखें?
किस छोर की ओर देखें?
और किस उम्मीद से आखिर?
की दिन भी गुजर जाये जो,
और दर्द भी ना हो;
की रात भी थम जाये अगर,
तो खबर भी ना हो। 
आखिर अब हम ऐसा कौन सा, कौन सा ख्वाब देखें?

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